Sunday, June 14, 2020

अलविदा सुशांत

यार तुम ऐसे कैसे जा सकते हो. तुम इतने लोगों के लिए प्रेरणा थे. तुम्हारा किरदार मेरे लिए बहुत बड़ा प्रेरणा है. एम एस धोनी मूवी के बाद लगने लगा था जैसे तुम ही असली धोनी हो. न जाने कितनी दफा उस मूवी को मैंने देखा. शायद हर बार जब मन थोड़ा दुखी होता है...जब निराशा होती है...जब ज़िन्दगी थोड़ी परेशान करती है. उस एक मूवी को देखने के बाद कई बार मैंने अपना मूड ठीक किया है और खुद को संभाला है. एक-एक डायलॉग मुझे याद है..शायद धोनी रियल लाइफ में उतने प्रेरक नहीं लगते जितने तुम उस मूवी के बाद लगने लगे...और वजह सिर्फ तुम थे...
"नौकरी के लिए आउट थोड़ी हो जाएंगे"

और खड़गपुर स्टेशन पर अनिमेश बाबू से वो बातचीत - "अरे तुम्हारा गेम सुधरा ही कब था..यही तो तुम्हारा खासियत है कि तुम एकदम नेचुरल खेलता है"
और उसके बाद तुमने वो ट्रेन पकड़ ली.

मोहब्बत तो तुमसे उस मूवी से ही हो गई थी और फिर आई छिछोरे जिसने न जाने कितने लोगों को डिप्रेशन का मतलब समझाया.मेन्टल हेल्थ का महत्त्व समझाया और जीना सिखाया. हार-जीत ही ज़िन्दगी में सब कुछ नहीं होता. हम लड़े और ज़िन्दगी को जिया ये महत्वपूर्ण है.

"ज़िन्दगी में सबसे ज्यादा कुछ महत्वपूर्ण होता है तो खुद वो ज़िन्दगी होती है"
 कोई सोच भी नहीं सकता की ऐसे किरदार को जीने वाला शख्स भी कभी इतना निराश और अकेला हो सकता है कि किसी दोपहर वो अचानक से हमें छोड़ कर चला जाए. ज़िन्दगी कभी इतनी भारी लगने लगे की हम उसे एक बोझ समझने लगे. 
 पैसा शौहरत सब आपको पल भर की खुशी ही दे सकती है. सुशांत के पास इस सबकी कोई कमी नहीं थी. लेकिन शायद वो अंदर से इतने अकेले हो गए थे कि उन्हें जीना मुश्किल लगने लगा. अपने आसपास के लोगों को सुनिए, उनसे बात कीजिये, उन्हें कभी यह न लगे कि ज़िन्दगी बोझिल है.
तुम हमेशा जिंदा रहोगे...

अलविदा सुशांत ♥️

Wednesday, May 27, 2020

दो सांसदों से दो प्रधानमंत्री देने वाली पार्टी की कहानी

भाजपा के राजनीतिक सफ़र की कहानी 

  • इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि भाजपा के अंदर गांधीवादी समाजवाद के विचार को लेकर टकराव था
  • पार्टी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को भाजपा के संविधान में शामिल कर एक नई राह पकड़ी

6 अप्रैल 2020

"भारत के पश्चिमी घाट को मंडित करने वाले महासागर के किनारे खड़े होकर मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि अंधेरा छटेगा,सूरज निकलेगा,कमल खिलेगा।"

                 फोटो - हिंदुस्तान टाइम्स

तारीख थी 30 दिसम्बर 1980,मौका था नई नवेली भारतीय जनता पार्टी के पहले अधिवेशन का और मंच से बोल रहे थे अटल बिहारी वाजपेयी।
6 अप्रैल 1980 को दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला मैदान में देश भर से आये 3500 प्रतिनिधियों के बीच जनता पार्टी से निकाले गए जनसंघ गुट के नेताओं ने एक नई पार्टी का निर्माण किया। जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री रहे और जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी भाजपा के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 
खुद को देश की सबसे लोकतांत्रिक पार्टी बताने वाली भाजपा आज अपना 40 वां स्थापना दिवस मना रही है।

जनता पार्टी का विघटन और भारतीय जनता पार्टी का उदय

जनता पार्टी में हो रही लगातार उपेक्षा से नाराज़ जनसंघ के नेता वहां असहज महसूस कर रहे थे। दोहरी सदस्यता का मुद्दा पार्टी के भीतर जोर शोर से उठाया जाने लगा।समाजवादी धड़े के नेता जैसे मधु दंडवते, कांग्रेस से निकले जगजीवन राम जैसे नेता संघ की पृष्टभूमि से आने वाले अटल-आडवाणी जैसे नेताओं के साथ चलने में असहज महसूस कर रहे थे।25 फरवरी 1980 को जगजीवन राम ने जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को पत्र लिखकर  'दोहरी सदस्यता' के मुद्दे पर चर्चा की मांग की। उनका कहना था कि जनसंघ के नेता संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपना संबंध पूरी तरह खत्म कर लें तभी वो जनता पार्टी में रहें। जनसंघ के नेताओं को यह मंजूर नहीं था। ऐसे में पार्टी से निष्कासन उनके लिए काफी राहत पहुंचाने वाला निर्णय था। जनता पार्टी को भी इस बीच खुद जगजीवन राम छोड़ कर चले गए। चरण सिंह पहले ही अलग हो चुके थे। जनता पार्टी टुकड़ो में बंट चुकी थी।

जनसंघ के नर्सरी से उपजने वाली पार्टी का नाम भारतीय जनता पार्टी क्यों ?

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब 'मेरा जीवन मेरा देश' में इसका जिक्र किया है कि पार्टी ने स्थापना के दिन यह स्पष्ट किया कि, 'हमने नई पार्टी का नाम भारतीय जनता पार्टी इसलिए रखा क्योंकि यह हमारे भारतीय जनसंघ और जनता पार्टी, दोनों के साथ गौरवपूर्ण संबंधों को दर्शाता है,हम पुराने को छोड़े बिना नए पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं।' स्थापना कार्यक्रम में कोटला मैदान में मंच पर जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और विचारक दीनदयाल उपाध्याय के साथ-साथ जनता पार्टी के मार्गदर्शक जयप्रकाश नारायण का भी चित्र था।
पार्टी खुद को जनसंघ और आरएसएस से अलग दिखाने का प्रयास करती रही। इसके पीछे वजह यह थी संघ की विचारधारा से नहीं जुड़ने वाले लोग भी पार्टी से जुड़े। समाज के उस तबके को ध्यान में रखा गया जो दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ झुकाव रखता था और कांग्रेस से खुश नहीं था। 

क्या था भाजपा के सैद्धान्तिक द्वंद ?

भाजपा ने अपने स्थापना के समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त घोषित किया। स्वयं अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने मुम्बई अधिवेशन में इसकी चर्चा की। हालांकि पार्टी के भीतर इसके विरुद्ध भी कुछ स्वर तब भी थे,जिनका गांधीवादी समाजवाद से मतभेद था। संस्थापक सदस्य राजमाता विजयाराजे सिंधिया उनमें से प्रमुख थी। लेकिन पार्टी ने बहुमत के आधार पर इसी मार्ग पर चलने का फैसला लिया।
अप्रैल में कोटला में स्थापना से लेकर दिसम्बर में मुम्बई अधिवेशन तक पार्टी ने राज्यों में अपनी इकाइयां स्थापित की। मुम्बई के इस ऐतिहासिक मौके पर ही वाजपेयी ने कहा कि भाजपा 'पार्टी विद ए डिफरेंस' होगी। 

क्यों हुआ भाजपा के संविधान और सोच में परिवर्तन ?

भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा,देश में इंदिरा गांधी की हत्या के प्रति शोक की लहर थी। राजीव रिकॉर्ड सीटों के साथ देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने। भाजपा केवल 2 सीटें जीत पाई। अटल बिहारी वाजपेयी भी ग्वालियर से चुनाव हार गए। 84 के चुनाव के बाद पार्टी के भीतर वाजपेयी के खिलाफ स्वर उठने शुरू हो गए। उनके उदारवादी व्यकितत्व पर सवाल उठने लगे। संघ को लगा की वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी कभी शीर्ष पर नहीं पहुंच सकती। प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि पार्टी में एक बार फिर से गांधीवादी समाजवाद के प्रति विरोध के स्वर उठने लगे। जनसंघ से आए ज्यादातर नेता खुद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में गांधीवादी समाजवाद से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे। पार्टी ने इस बात पर ध्यान दिया और एकात्म मानववाद को भाजपा के संविधान में शामिल कर लिया गया, और एक तरीके से पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद से खुद को अलग कर लिए। अटल की जगह आडवाणी अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे।

                      फोटो - द स्टेट्समैन

कैसे हिन्दू राष्ट्रवाद बनी पार्टी की मुख्य विचारधारा ?

आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी ने आक्रमकता से अपने हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रचार किया। पार्टी ने राष्ट्रवाद के एजेंडे को भी आगे बढ़ाया। पार्टी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में तिरंगा यात्रा निकाली गई। श्रीनगर के लाल चौक पर 26 जनवरी 1992 को तिरंगा फहराया गया। विहिप के राम मंदिर आंदोलन को पार्टी ने खुलकर समर्थन दिया। स्वयं आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाला। पार्टी की नई प्रखर हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा ने पार्टी को 1989 के और 1991 के चुनाव में क्रमशः 85 और 120 सीटें दिलाई। आडवाणी संघ और संगठन दोनों के पसंदीदा बन चुके थे। वी पी सिंह की सरकार गिराने के बाद हुए चुनाव के बाद आडवाणी  लोकसभा में नेता विपक्ष बने और भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी।


90 के दशक में भाजपा कैसे बनी देश की सबसे बड़ी पार्टी ?

बाबरी मस्जिद विध्वंस पार्टी के साथ जुड़ा हुआ एक काला सच है। हालांकि पार्टी के कई नेता उसको गौरव का विषय बताते हैं और चुनावों में उसका फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। आडवाणी को यह पता था कि अगर केंद्र में सरकार बनानी है तो सहयोगियों के बिना यह संभव नहीं है, और पार्टी की हिंदुत्ववादी छवि के कारण सहयोगी उनके साथ आने से कतराते हैं। आडवाणी ने ऐसे मौके पर 1995 में मुम्बई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अटल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसके पीछे रणनीति यही थी कि अटल के उदारवादी चेहरे का पार्टी को सहयोगी जुटाने में फायदा मिलेगा। इसका फायदा मिला भी। भाजपा ने सहयोगियों के साथ सरकार बनाई भी और पहले 13 दिन,फिर 13 महीने और फिर पांच साल अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार चलाई। पार्टी ने अपने कोर एजेंडे जैसे की अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर का निर्माण जैसे मुद्दे को सरकार के एजेंडे से अलग रखा। वाजपेयी के व्यक्तित्व और कार्यप्रणाली से संघ खुश नहीं रहता था, या कहें कि संघ अपने एजेंडे को वाजपेयी सरकार में लागू नहीं करा पा रहा था। सरकार और संगठन के बीच भी दूरियां बढ़ रही थी। तमाम बड़े नेता सरकार के हिस्सा बन चुके थे और संगठन चला रहे बंगारू लक्ष्मण, जना कृष्णमूर्ति जैसे नेताओं की पार्टी पर पकड़ उतनी मजबूत नहीं थी। कहा जाता है की सरकार के बेहतर काम के दावे के बाबजूद भी 2004 का चुनाव पार्टी संघ का समर्थन नहीं मिलने के कारण चुनाव हार गई। पार्टी का संगठन भी पूरी शक्ति के साथ चुनाव मैदान में नहीं दिखाई दिया। 

                 फोटो - इंडियन एक्सप्रेस

आडवाणी का सपना टूटा और मोदी का सपना पूरा हुआ

 वाजपेयी सक्रिय राजनीति से बाहर हो चुके थे।पार्टी की कमान राजनाथ सिंह,नितिन गडकरी जैसे नेताओं के पास रही। लेकिन सब पर नियंत्रण आडवाणी का ही चलता रहा।पार्टी दस साल के लिए सता से बाहर रही। 2009 के चुनाव में पार्टी ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया,लेकिन सफलता नहीं मिली।आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए। उसके बाद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ने लगी। जिससे पार्टी के कई बड़े नेता असहज होने लगे। आडवाणी खेमे के नेता मोदी के दिल्ली आने से अपनी संभावनाओं पर खतरे महसूस कर रहे थे। लेकिन गुजरात से ही आने वाले संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का समर्थन नरेंद्र मोदी को प्राप्त था। पार्टी ने प्रत्यक्ष रूप से आडवाणी और सुषमा स्वराज के विरोध के बाद भी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। मोदी के नेतृत्व में पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया। 40 साल पहले बनी भाजपा आज 303 लोकसभा सदस्यों के साथ देश की सरकार चला रही है। पार्टी यह दावा करती है की 11 करोड़ से ज्यादा सदस्यों के साथ भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है।वर्तमान में मोदी के नेतृत्व में चल रही सरकार, पार्टी और संघ के बीच समन्वय बना रहे इसके लिए एक समिति बनाई गई है। यह सबक वाजपेयी सरकार के समय हुई गलतियों से ली गई है।

क्यों नाराज हैं डब्ल्यू.एच.ओ से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप?

ट्रम्प ने WHO को दिए जाने वाले फंड को रोका, कोविड-19 को फैलने से रोकने में लगाया लापरवाही का आरोप

16 अप्रैल 2020

व्हाइट हाउस के लॉन में कोरोना के मुद्दे पर हर दिन होने वाली प्रेस ब्रीफिंग में अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने बुधवार को एक बड़ा ऐलान कर दिया।ट्रम्प ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) को दी जाने वाली अमेरिकी फंडिंग पर फिलहाल रोक लगा दी है। ट्रम्प ने WHO को कोरोना वायरस फैलने के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा कि कोरोना के सम्बन्ध में WHO के प्रबंधन की गलती और दुनिया से जरूरी जानकारी छुपाने की जब तक समीक्षा नहीं हो जाती, अमेरिका WHO को कोई आर्थिक मदद नहीं देगा। ट्रम्प ने यह आरोप भी लगाया कि WHO ने चीन की गलतियों पर पर्दा डाला और समय रहते दुनिया को कोरोना वायरस के खतरे की गंभीरता के बारे चेतावनी नहीं दी जिसके कारण वायरस दुनिया में फैल गया और इतना नुकसान हो रहा है।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका प्रति वर्ष 50 करोड़ डॉलर तक की धनराशि WHO को देता है जोकि विश्व में सबसे अधिक है। ऐसे समय में, जब दुनिया एक बड़ी महामारी से जूझ रही हो, 20 लाख से अधिक लोग वायरस से संक्रमित हैं और सवा लाख से ऊपर लोगों की जान जा चुकी है और अकेले अमेरिका में 26 हज़ार से ज्यादा लोग कोरोना के कारण जान गँवा चुके हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के इस फैसले की कड़ी आलोचना हो रही है।

ट्रम्प के फैसले पर क्या है भारत-चीन समेत दुनिया के देशों की प्रतिक्रिया

हालाँकि भारत ने ट्रंप के इस फैसले पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन सरकार के सूत्रों ने 'इंडियन एक्सप्रेस' को बताया है कि इस वक्त हमारी प्राथमिकता कोविड-19 से लड़ने की है। अभी हम पूरी ताकत से इस बीमारी से देश को मुक्त करने में लगे हैं। ऐसे मुद्दों पर हम बाद में ध्यान देंगे। वैसे भारत भी डब्ल्यू.एच.ओ से कोई खास खुश नहीं है.   

                                                         फोटो - इन्डियन  एक्सप्रेस

उधर, चीन ने अमेरिका के फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है। चीन ने WHO के काम को कोरोना से लड़ने में सराहा है और कहा है कि अमेरिका के इस फैसले का खामियाजा खुद अमेरिका को भी भुगतान पड़ेगा. ऐसे समय में, जब खुद अमेरिका इस महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित है और उन गरीब देश जहां WHO की
मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि उनका हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर उतना मजबूत और सक्षम नहीं है, अमेरिकी फैसले की सबसे अधिक कीमत उन देशों को ही चुकानी पड़ेगी। चीन ने WHO को दी जाने वाली आर्थिक मदद बढ़ाने के भी संकेत दिए हैं। चीन एक तरीके से WHO के पीछे खड़ा दिख रहा है क्योंकि ट्रम्प लगातार इस बीमारी को फैलने से रोकने में चीन पर लापरवाही का आरोप लगा रहे हैं और कोविड-19 को चीनी वायरस बता रहे हैं।

यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र, यूरोपियन यूनियन, रूस और अफ्रीकन यूनियन ने भी अमेरिका के इस फैसले की टाइमिंग पर सवाल उठाये हैं। सच यह है कि जब विश्व एक बड़े स्वास्थ्य संकट से गुज़र रहा है, हज़ारों लोग प्रतिदिन मर रहे हैं और WHO की भूमिका उससे लड़ने में बहुत महत्वपूर्ण है, उस समय WHO को सबसे ज्यादा आर्थिक मदद की जरूरत थी लेकिन इसके उलट अमेरिकी फंडिंग पर पर रोक लगा देने के फैसले को कोई सही नहीं ठहरा रहा है। खासकर अफ्रीका जहां WHO सबसे ज्यादा पैसा खर्च करता है और वहां की स्वास्थ सेवाएं अच्छी नहीं हैं।

क्यों WHO पर लग रहे हैं लापरवाही के आरोप ?

अमेरिका के आर्थिक मदद रोकने के फैसले का कई देश विरोध तो कर रहे हैं लेकिन वो WHO की लापरवाही पर भी सवाल उठा रहे हैं। बहुत सारे देशों ने संक्रमण फैलने के शुरुआत में ही चीन से आवाजाही पर रोक लगा दी थी लेकिन WHO ने इस बीमारी के फैलने की आशंका पर चीन से आवाजाही पर रोक लगाने के बाबत कोई सुझाव या चेतावनी जारी नहीं की। यही नहीं, WHO के गाइडलाइंस को भी बहुत देश फॉलो नहीं कर रहे हैं। WHO की भारतीय इकाई ने जनवरी में भारत को बताया कि यह बीमारी लोगों से लोगों में नहीं फैलती। 

डब्ल्यू.एच.ओ पर यह भी आरोप है कि उसने सही समय पर इस बीमारी की गंभीरता के बारे में दुनिया को आगाह नहीं किया और लगातार चीन का बचाव करता रहा। WHO ने अभी तक कहा है कि सिर्फ संक्रमित व्यक्ति को ही मास्क पहनने की आवश्यकता है लेकिन भारत में आईसीएमआर ने अपने गाइडलाइंस में उन सभी लोगों के लिए जो घर से बाहर जा रहे हों, उन्हें अनिवार्य रूप से मास्क पहनने की सलाह दी है। अमेरिका ने WHO के महानिदेशक डा. टेड्रोस अधानोम पर चीन के पक्ष में काम करने और कोरोना के मामले में राजनीति करने के आरोप लगाया है।

कौन हैं डा. टेड्रोस अधानोम और क्यों हैं विवादों में ?

टेड्रोस अधानोम WHO के महानिदेशक हैं। अफ़्रीकी देश- इथियोपिया के नागरिक टेडरोस 2017 में चीन की मदद से इस कुर्सी पर पहुंचे थे। इससे पहले टेडरोस इथियोपिया में स्वास्थ्य मंत्री और विदेश मंत्री भी रह चुके थे। पहले भी टेडरोस के मानवाधिकार संबंधी विचारों पर सवाल उठते रहे हैं जैसे अभी चीन को बचाने को
लेकर उठ रहे हैं। टेडरोस ने अपने ऊपर लग रहे आरोपों का जवाब देते हुए कहा है कि उन्होंने तत्परता से कोरोना के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और कुछ लोग उन्हें इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि वो एक अफ्रीकी हैं। उन्होंने इसके पीछे अमेरिका की राजनीति को ज़िम्मेदार ठहराया है। टेडरोस ने अपने WHO के चुनाव में भी अफ्रीकन मूल के मुद्दे को उठाया था जिसका उन्हें फायदा भी मिला था।

                                                     फोटो - द हिन्दू

ट्रम्प के फैसले का असर किस पर पड़ेगा ?

अमेरिका के इस फैसले का सबसे ज्यादा प्रभाव अफ्रीकी देशों पर पड़ेगा। अफ्रीकी देशों में WHO स्वास्थ्य योजनाओं पर लगभग 1.6 अरब डॉलर से भी अधिक खर्च करता है। अफ्रीका में ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं है. ऐसे में, इस संकट की घड़ी में इसका सीधा असर गरीब देशों पर पर पड़ेगा जो कोरोना महामारी को झेल रहे हैं। भारत जैसे देश और दक्षिण पूर्व एशिया में WHO लगभग 37.5 करोड़ डॉलर खर्च करता है। इस क्षेत्र के विकासशील देशों पर भी इसका असर पड़ सकता है।

WHO को कहां से मिलता है कितना पैसा ?

WHO को दुनिया भर में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने, बीमारियों से लड़ने और लोगो को स्वास्थ्य के प्रति
जागरूक करने के लिए दुनिया भर के देशों, परोपकारी संगठनों, यूएन के अन्य संगठनों से पैसे मिलते हैं।WHO को मिलने वाले कुल फंड में अकेले अमेरिका 15 फीसदी मदद देता है. उसके बाद देशों में यूके सबसे अधिक पैसा WHO को देता है। बिल गेट्स फाउंडेशन WHO को आर्थिक मदद करने के मामले में 9.7 फीसदी के साथ दूसरे नम्बर पर है। ऐसे में, अमेरिका की आर्थिक कटौती का बड़ा असर WHO के कार्यो पर पड़ेगा।

कोरोना जैसे मुद्दे पर क्यों हो रही है राजनीति ?

अमेरिका ने कोरोना के खतरे को शुरुआत में गंभीरता से नहीं लिया और ट्रम्प इसका आरोप WHO की गाइडलाइंस को बता रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प कोरोना के रोकथाम में अबतक सफल नहीं दिख रहे हैं। उन्हें अमेरिका के अंदर राज्यों के गवर्नरों और विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी अमेरिकी अर्थव्यवस्था बिल्कुल चरमरा सी गई है। केवल पिछले 24 घंटे में 2400 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है। घरेलू मोर्चे पर असफल होते ट्रम्प ने WHO और चीन को आड़े हाथ लेते हुए
जमकर भड़ास निकालना शुरू कर दिया है. एक तरीके से ट्रम्प की कोशिश है कि इस महामारी का आरोप चीन और WHO पर लगाकर खुद को होने वाली राजनीतिक नुकसान को कम कर सकें। अमेरिका में इसी साल के अंत में राष्ट्रपति चुनाव भी होना है, इसलिए ट्रम्प के लिए यह बहुत बड़ी राजनीतिक चुनौती है।

                                                फोटो - डेडलाइन

शिकागो में रहने वाले विश्व कुमार बताते हैं कि अमेरिका में सरकार और लोग दोनों ने शुरूआत में कोरोना को बहुत हल्के में लिया। WHO की गाइडलाइंस बहुत बाद में आई, तब तक अमेरिका में कोरोना पैर पसार चुका था। अमेरिका के मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में चीन का बहुत बड़ा शेयर है. ऐसे में, चीन पर लग रहे आरोपो को खारिज नहीं किया जा सकता है। चीन इस वक्त अमेरिका में बहुत ज्यादा पैसा इन्वेस्ट कर रहा है। चीन भी अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। उसका WHO महानिदेशक के पक्ष में खुलकर आना और अमेरिकी पत्रकारों को देश छोड़ने के लिए फरमान सुना देना स्पष्ट करता है कि इस मुद्दे पर चीन अमेरिका के सामने झुकने को तैयार नहीं है। 

चाहे कोरोना संक्रमण और मौतों के आंकड़े छुपाने का आरोप हो या दुनिया को कोरोना पर भ्रमित करने का आरोप- चीन अपनी गलतियों को मानने के लिए तैयार नहीं दिख रहा है और आक्रामक रूप से इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया दे रहा है। फिलहाल, यह समय टलने के बाद इसका असर वैश्विक राजनीति पर अवश्य दिखेगा। चीन और अमेरिका के बीच छिड़ चुकी इस लड़ाई का परिणाम वैश्विक राजनीति पर क्या होगा, यह बाद में पता चलेगा। 


अभी हमें प्रार्थना करना चाहिए कि यह संकट मानवजाति को कम से कम नुकसान पहुंचाए और जल्दी से टल जाए। 

Saturday, May 23, 2020

बिहार में नवंबर नहीं तो कब और कैसे होंगे विधानसभा चुनाव?


कोरोना महामारी के बीच बढ़ते गर्मी के साथ देश में राजनीति भी गर्म है. उत्तर प्रदेश में बसों की राजनीति हो रही है तो मध्य प्रदेश में बंगलों की. अगर इस वक्त देश कोरोना संकट से नहीं जूझ रहा होता तो देश में सबसे बड़ा राजनैतिक मुद्दा बिहार चुनाव होता. बिहार विधानसभा का कार्यकाल नवंबर में समाप्त हो रहा है. कोरोना के बढ़ते मामले और इससे लड़ाई में सोशल डिस्टेंसिंग के महत्त्व को देखते हुए लोगों के मन में यह सवाल है कि क्या बिहार विधानसभा चुनाव समय पर होगा?
हालांकि यह फैसला चुनाव आयोग को करना है कि चुनाव कब और कैसे होगा, लेकिन बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के डिजिटल चुनाव कराने वाले बयान के बाद यह चर्चा चल रही है कि अगर कोरोना संकट जल्द नहीं टला तो चुनाव कैसे होंगे?
                   फोटो - द हिन्दू 

समय पर हो जाए चुनाव

अगर समय रहते देश में स्थिति थोड़ी-बहुत सामान्य हो जाती है तो नवंबर में अभी पांच महीने है. चुनाव आयोग की पहली कोशिश यही होगी की बिहार चुनाव समय पर और सामान्य तरीके से हो जाए. लेकिन यह पूरी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि कोरोना की स्थिति देश और बिहार में कैसे बदलती है. जाहिर है कि चुनाव होगा तो भीड़ जुटने की संभावना ज्यादा होगी. अगर रैलियों पर रोक लगा भी दिया जाए फिर भी मतदान के लिए बूथ पर भारी भीड़ लगती है. ऐसे में सभी जगह सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाने में प्रशासन के पसीने छूट जाएंगे. एक डर यह भी होगा की लोग ही शायद मतदान के लिए घर से कम बाहर निकले और मतदान का प्रतिशत काफी कम हो जाएगा. रैलियों और जनसभाओं के बिना अभी तक एक भी चुनाव नहीं हुए हैं. इसकी उम्मीद कम ही नज़र आती है कि राजनैतिक पार्टियां बिना प्रचार और जनसभाओं के चुनाव के लिए सहमत हों.

डिजिटल चुनाव की संभावना

            सुशील मोदी  (फोटो - द प्रिंट )

बिहार के उपमुख्यमंत्री ने डिजिटल चुनाव की बात कही है. कोरोना काल में लोगों को डिजिटल माध्यम का महत्व तो समझ में आ गया है, लेकिन क्या डिजिटल माध्यम से भारत  में वर्तमान स्थिति में चुनाव संभव है और यह चुनाव कितना निष्पक्ष होगा? यह एक बड़ा सवाल है. हाल के वर्षों में विपक्षी दलों ने जिस प्रकार से ईवीएम में छेड़खानी और उसे हैक कर नतीजें प्रभावित करने का आरोप लगाया है. ऐसे में  यह मुश्किल है कि डिजिटल चुनाव जैसे किसी आइडिया से भी वे सहमत हों. भारत में ज्यादातर ग्रामीण इलाकों और कुछ शहरी इलाकों में भी इंटरनेट की सुविधा अच्छी नहीं है. अगर कहीं सुविधा भी है तो लोगों में इंटरनेट साक्षरता की कमी है. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में इंटरनेट के माध्यम से डिजिटल चुनाव स्थानीय स्तर के चुनावों में प्रयोग किया गया है. वहां भी ऐसे चुनाव में तकनीकी खराबी और हैकिंग जैसे आरोपों ने इसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये हैं. ऐसे में भारत में एक बड़े राज्य का विधानसभा चुनाव इतनी जल्दी डिजिटल माध्यम से हो यह संभव नज़र नहीं आता.

अगर चुनाव डिजिटल माध्यम से या समय पर नहीं होते हैं तो क्या हैं अन्य विकल्प - 

क्या बढ़ाया जा सकता है विधानसभा का कार्यकाल?

एक चर्चा यह भी चल रही है कि वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 6 महीने या एक साल के लिए बढ़ाया जा सकता है. फिर जब स्थिति सामान्य होगी तब चुनाव हो सकता है. लेकिन ऐसे करना शायद संभव नज़र नहीं आता. संविधान के अनुच्छेद 172(1) के अनुसार विधानसभा का कार्यकाल  राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान ही बढ़ाया जा सकता है. एक बार में अधिकतम एक साल के लिए विधानसभा के कार्यकाल को बढ़ाया जा सकता है और आपातकाल खत्म होने के 6 महीने के भीतर विधानसभा का चुनाव कराना अनिवार्य होगा. यह विशेषाधिकार भारतीय संसद को प्राप्त है. संविधान के अनुच्छेद 352 में केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राष्ट्रपति को देश में आपातकाल लगाने का अधिकार प्राप्त है.
लेकिन अभी न तो देश में आपातकाल लागू है और ना हीं संसद चलने के आसार है. शायद ही संसद का मानसून सत्र नियमित रूप से समय पर चल सके. ऐसे में विधानसभा  का कार्यकाल बढ़ाने वाली चर्चा व्यवहारिक नहीं लगती.

क्या राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है?

    बिहार विधानमंडल ( फोटो -विधानसभा वेबसाइट)

विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने की स्थिति में एक विकल्प राष्ट्रपति शासन लगाने का भी है. संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार अगर राज्य में संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा होती है तब राष्ट्रपति खुद संज्ञान लेकर या राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं. तब राज्यपाल राष्ट्रपति के नुमाइंदे के तौर पर राज्य के मुखिया होंगे. वर्तमान परिस्थिति में अगर चुनाव टालने की नौबत आती है तो राष्ट्रपति शासन का विकल्प केंद्र सरकार के पास है. लेकिन राज्य सरकार इसके लिए आसानी से मान जाएगी ऐसा कहना मुश्किल है. हालांकि केंद्र और बिहार दोनों जगह एनडीए की ही सरकार है लेकिन बिहार में सरकार का नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथों में है.

ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा की चुनावी साल में कोरोना की लड़ाई के साथ-साथ बिहार में चुनाव और राजनैतिक परिस्थिति किस प्रकार बदलती है.

Friday, May 8, 2020

कोरोना संकट के दौर में प्रकृति खुद को संवार रही है

पूरा विश्व इस समय एक भयंकर महामारी से जूझ रहा है। हर दिन हज़ारों लोगों की मौत कोरोना वायरस से हो रही है।दुनिया के विकसित देशों ने भी इस महामारी के सामने घुटने टेक दिए हैं।ऐसे समय में चारों तरफ से सिर्फ मन को विचलित और दुखी कर देने वाली खबरें ही आ रही हैं।वही एक खबर ऐसी भी है जो हमें थोड़ा सुकून दे सकती है और इस संकट की घड़ी में हमें कुछ सीख भी दे सकती है।

                             फोटो : फोर्ब्स

21वीं सदी की दुनिया यानि पृथ्वी के इतिहास में सबसे तेज गति से दौड़ने वाली जिंदगियां,कभी न रूकने और थमने वाले लोग,कभी खाली नहीं रहने वाली सड़कें, आज सब थम चुके हैं।लोग घरों में कैद हैं,सड़कें खाली हैं और शायद पहली बार इस सदी के लोग अपनी इच्छाएं और अपनी जरूरतों में फ़र्क समझ पा रहे हैं।मानव गतिविधियां जहां थम गई हैं, वहीं प्रकृति जैसे खुद को जीने लगी है।दुनिया भर से आ रही पर्यावरण की खबरों पर हम गौर करें तो पर्यावरण की स्थिति में अद्वितीय सुधार हुआ है।मानव बोझ से दबी हुई प्रकृति जैसे शायद पहली बार इतनी आज़ाद महसूस कर रही है।
नासा की एक रिपोर्ट के मुताबिक नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी कमी आई है।

नासा लिंकhttps://svs.gsfc.nasa.gov/4810

दिल्ली जो दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है,लेकिन अभी दिल्ली की हवा बहुत साफ हो चुकी है और आप दिन को बेहद साफ नीले आसमान और रातों को टिमटिमाते तारों को देख सकते है,जो दिल्ली में आमतौर पर नहीं देखने को मिलता था।वायु गुणवत्ता सूचकांक अपने निचले स्तर तक सामान्य की स्थिति में पहुंच चुका है। PM 2.5 और PM 10 की मानकों में भारी गिरावट दर्ज की गई है।  
         स्रोत :Anushree Fadnavis and Adnan                                Abidi/Reuters

अपने शहर के प्रदूषण का हाल यहां देखें - 

सिर्फ दिल्ली ही नहीं,दुनिया के अन्य शहरों में भी इतनी साफ हवा पिछले कई दशकों में नहीं देखी गई थी।प्रतिष्ठित अखबार 'द गार्डियन' में छपे एक लेख के मुताबिक बैंगकॉक में जहां पिछले ही महीने वायु प्रदूषण के कारण स्कूलों में छुट्टी करना पड़ा था, वहां भी अभी वायु प्रदूषण में काफी कमी आ गई है।इसी तरह दक्षिण ब्राज़ील के व्यस्त तटीय शहर साओ पओलो में भी सामान्य जन जीवन बंद है और वहां वायु की गुणवत्ता में अप्रत्याशित सुधार देखने को मिला है।

               सुनीता नारायण (फोटो : द हिन्दू)

'द गार्डियन' के हवाले से पर्यावरणविद सुनीता नारायण कहती है, 'हम नहीं चाहते की लोग ये कहें कि पर्यावरणविद इस महामारी और लॉकडाउन की खुशी मना रहे हैं,हम बिल्कुल ऐसा नहीं कर रहे।हम बस यही कहना चाहते हैं कि देखिये प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के लिए हमें कोरोना से निपटने के बाद और अधिक गम्भीरता से काम करने की जरूरत है।'
अलजजीरा में छपे एक रिपोर्ट में कैलिफोर्निया के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में पृथ्वी विज्ञान के प्रोफेसर जैकसन के मुताबिक हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर इस वर्ष वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5% तक की कमी आती है,जो की द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कार्बन उत्सर्जन में सबसे बड़ी गिरावट होगी।प्रोफेसर जैकसन आगे कहते हैं कि, 'लेकिन यह स्थिति एक बुरे कारण की वजह से आई है जहां लाखों लोग एक जानलेवा वायरस के शिकार हो चुके हैं और यह बहुत दुखद है।'



हाल ही में बिहार के नेपाल बार्डर से हिमालय की बर्फ़ीली चोटियां दिखने वाली तस्वीरें भारतीय मीडिया में छायी रही।विशेषज्ञों की माने तो यह बदलाव तभी तक है जब तक हम कोरोना संकट से बाहर नहीं निकल जाते,क्योंकि प्रकृति में आये इस बदलाव के पीछे हमारी किसी योजना और रणनीति का असर नहीं है।कोरोना संकट के बाद फिर से कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि होगी और यह वहीं पहुंच जाएगी जहां पहले थी।

इस लॉकडाउन के कारण सिर्फ प्राकृतिक सौंदर्य की तस्वीरें ही नहीं आ रही।लोग जहां इस वक्त घरों में रहने को मजबूर हैं,वहीं जानवरों की कई ऐसी तस्वीरें सामने आई है जो दिल को खुश करने वाली है।
दक्षिणी फ्रांस के करीब भूमध्य सागर के तटों पर व्हेल मछलियों के जोड़े को देखा गया।मार्सिले जैसे व्यस्त तटीय शहर में यह देखा जाना दुर्लभ हो गया था।

आम लोगों के लिए जहां भारत में सड़कें बन्द है वहीं भारतीय वन विभाग के अधिकारी ने कर्नाटक में सड़क पार कर रहे हाथी के एक पूरे परिवार का वीडियो ट्विटर पर साझा किया।यह वीडियो सोशल मीडिया में खूब वायरल हुआ।
                 फोटो साभार : डक्कन हेराल्ड 

पर्यावरणविद और प्रकृति से प्रेम करने वाले लोगों के लिए ये बातें सुखद हो सकती है, लेकिन पूरा विश्व इस समय एक गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहा है।हम सब यही प्रार्थना कर रहे हैं कि मनुष्यता के ऊपर से यह संकट जल्दी गुज़र जाए।इस संकट से उबरने के बाद हमें प्रकृति के प्रति अपने नजरिये में बदलाव लाने की जरूरत होगी।जानवरों और जंगलों को हमने उतनी महत्वत्ता कभी नहीं दी जितनी देनी चाहिए।वक्त कठिन है,गुज़र जाएगा और उम्मीद है लोग ऐसे उदाहरणों को देखकर आने वाले समय में प्रकृति से अधिक प्रेम करेंगे,जानवरों के लिए अधिक संवेदनशील होंगे और उन्हें भी इस पृथ्वी में बराबर की हिस्सेदारी देंगे।

अलविदा सुशांत

यार तुम ऐसे कैसे जा सकते हो. तुम इतने लोगों के लिए प्रेरणा थे. तुम्हारा किरदार मेरे लिए बहुत बड़ा प्रेरणा है. एम एस धोनी मूवी के बाद लगने लगा...