Wednesday, May 27, 2020

दो सांसदों से दो प्रधानमंत्री देने वाली पार्टी की कहानी

भाजपा के राजनीतिक सफ़र की कहानी 

  • इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि भाजपा के अंदर गांधीवादी समाजवाद के विचार को लेकर टकराव था
  • पार्टी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को भाजपा के संविधान में शामिल कर एक नई राह पकड़ी

6 अप्रैल 2020

"भारत के पश्चिमी घाट को मंडित करने वाले महासागर के किनारे खड़े होकर मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि अंधेरा छटेगा,सूरज निकलेगा,कमल खिलेगा।"

                 फोटो - हिंदुस्तान टाइम्स

तारीख थी 30 दिसम्बर 1980,मौका था नई नवेली भारतीय जनता पार्टी के पहले अधिवेशन का और मंच से बोल रहे थे अटल बिहारी वाजपेयी।
6 अप्रैल 1980 को दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला मैदान में देश भर से आये 3500 प्रतिनिधियों के बीच जनता पार्टी से निकाले गए जनसंघ गुट के नेताओं ने एक नई पार्टी का निर्माण किया। जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री रहे और जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी भाजपा के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 
खुद को देश की सबसे लोकतांत्रिक पार्टी बताने वाली भाजपा आज अपना 40 वां स्थापना दिवस मना रही है।

जनता पार्टी का विघटन और भारतीय जनता पार्टी का उदय

जनता पार्टी में हो रही लगातार उपेक्षा से नाराज़ जनसंघ के नेता वहां असहज महसूस कर रहे थे। दोहरी सदस्यता का मुद्दा पार्टी के भीतर जोर शोर से उठाया जाने लगा।समाजवादी धड़े के नेता जैसे मधु दंडवते, कांग्रेस से निकले जगजीवन राम जैसे नेता संघ की पृष्टभूमि से आने वाले अटल-आडवाणी जैसे नेताओं के साथ चलने में असहज महसूस कर रहे थे।25 फरवरी 1980 को जगजीवन राम ने जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को पत्र लिखकर  'दोहरी सदस्यता' के मुद्दे पर चर्चा की मांग की। उनका कहना था कि जनसंघ के नेता संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपना संबंध पूरी तरह खत्म कर लें तभी वो जनता पार्टी में रहें। जनसंघ के नेताओं को यह मंजूर नहीं था। ऐसे में पार्टी से निष्कासन उनके लिए काफी राहत पहुंचाने वाला निर्णय था। जनता पार्टी को भी इस बीच खुद जगजीवन राम छोड़ कर चले गए। चरण सिंह पहले ही अलग हो चुके थे। जनता पार्टी टुकड़ो में बंट चुकी थी।

जनसंघ के नर्सरी से उपजने वाली पार्टी का नाम भारतीय जनता पार्टी क्यों ?

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब 'मेरा जीवन मेरा देश' में इसका जिक्र किया है कि पार्टी ने स्थापना के दिन यह स्पष्ट किया कि, 'हमने नई पार्टी का नाम भारतीय जनता पार्टी इसलिए रखा क्योंकि यह हमारे भारतीय जनसंघ और जनता पार्टी, दोनों के साथ गौरवपूर्ण संबंधों को दर्शाता है,हम पुराने को छोड़े बिना नए पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं।' स्थापना कार्यक्रम में कोटला मैदान में मंच पर जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और विचारक दीनदयाल उपाध्याय के साथ-साथ जनता पार्टी के मार्गदर्शक जयप्रकाश नारायण का भी चित्र था।
पार्टी खुद को जनसंघ और आरएसएस से अलग दिखाने का प्रयास करती रही। इसके पीछे वजह यह थी संघ की विचारधारा से नहीं जुड़ने वाले लोग भी पार्टी से जुड़े। समाज के उस तबके को ध्यान में रखा गया जो दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ झुकाव रखता था और कांग्रेस से खुश नहीं था। 

क्या था भाजपा के सैद्धान्तिक द्वंद ?

भाजपा ने अपने स्थापना के समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त घोषित किया। स्वयं अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने मुम्बई अधिवेशन में इसकी चर्चा की। हालांकि पार्टी के भीतर इसके विरुद्ध भी कुछ स्वर तब भी थे,जिनका गांधीवादी समाजवाद से मतभेद था। संस्थापक सदस्य राजमाता विजयाराजे सिंधिया उनमें से प्रमुख थी। लेकिन पार्टी ने बहुमत के आधार पर इसी मार्ग पर चलने का फैसला लिया।
अप्रैल में कोटला में स्थापना से लेकर दिसम्बर में मुम्बई अधिवेशन तक पार्टी ने राज्यों में अपनी इकाइयां स्थापित की। मुम्बई के इस ऐतिहासिक मौके पर ही वाजपेयी ने कहा कि भाजपा 'पार्टी विद ए डिफरेंस' होगी। 

क्यों हुआ भाजपा के संविधान और सोच में परिवर्तन ?

भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा,देश में इंदिरा गांधी की हत्या के प्रति शोक की लहर थी। राजीव रिकॉर्ड सीटों के साथ देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने। भाजपा केवल 2 सीटें जीत पाई। अटल बिहारी वाजपेयी भी ग्वालियर से चुनाव हार गए। 84 के चुनाव के बाद पार्टी के भीतर वाजपेयी के खिलाफ स्वर उठने शुरू हो गए। उनके उदारवादी व्यकितत्व पर सवाल उठने लगे। संघ को लगा की वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी कभी शीर्ष पर नहीं पहुंच सकती। प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि पार्टी में एक बार फिर से गांधीवादी समाजवाद के प्रति विरोध के स्वर उठने लगे। जनसंघ से आए ज्यादातर नेता खुद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में गांधीवादी समाजवाद से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे। पार्टी ने इस बात पर ध्यान दिया और एकात्म मानववाद को भाजपा के संविधान में शामिल कर लिया गया, और एक तरीके से पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद से खुद को अलग कर लिए। अटल की जगह आडवाणी अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे।

                      फोटो - द स्टेट्समैन

कैसे हिन्दू राष्ट्रवाद बनी पार्टी की मुख्य विचारधारा ?

आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी ने आक्रमकता से अपने हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रचार किया। पार्टी ने राष्ट्रवाद के एजेंडे को भी आगे बढ़ाया। पार्टी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में तिरंगा यात्रा निकाली गई। श्रीनगर के लाल चौक पर 26 जनवरी 1992 को तिरंगा फहराया गया। विहिप के राम मंदिर आंदोलन को पार्टी ने खुलकर समर्थन दिया। स्वयं आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाला। पार्टी की नई प्रखर हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा ने पार्टी को 1989 के और 1991 के चुनाव में क्रमशः 85 और 120 सीटें दिलाई। आडवाणी संघ और संगठन दोनों के पसंदीदा बन चुके थे। वी पी सिंह की सरकार गिराने के बाद हुए चुनाव के बाद आडवाणी  लोकसभा में नेता विपक्ष बने और भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी।


90 के दशक में भाजपा कैसे बनी देश की सबसे बड़ी पार्टी ?

बाबरी मस्जिद विध्वंस पार्टी के साथ जुड़ा हुआ एक काला सच है। हालांकि पार्टी के कई नेता उसको गौरव का विषय बताते हैं और चुनावों में उसका फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। आडवाणी को यह पता था कि अगर केंद्र में सरकार बनानी है तो सहयोगियों के बिना यह संभव नहीं है, और पार्टी की हिंदुत्ववादी छवि के कारण सहयोगी उनके साथ आने से कतराते हैं। आडवाणी ने ऐसे मौके पर 1995 में मुम्बई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अटल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसके पीछे रणनीति यही थी कि अटल के उदारवादी चेहरे का पार्टी को सहयोगी जुटाने में फायदा मिलेगा। इसका फायदा मिला भी। भाजपा ने सहयोगियों के साथ सरकार बनाई भी और पहले 13 दिन,फिर 13 महीने और फिर पांच साल अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार चलाई। पार्टी ने अपने कोर एजेंडे जैसे की अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर का निर्माण जैसे मुद्दे को सरकार के एजेंडे से अलग रखा। वाजपेयी के व्यक्तित्व और कार्यप्रणाली से संघ खुश नहीं रहता था, या कहें कि संघ अपने एजेंडे को वाजपेयी सरकार में लागू नहीं करा पा रहा था। सरकार और संगठन के बीच भी दूरियां बढ़ रही थी। तमाम बड़े नेता सरकार के हिस्सा बन चुके थे और संगठन चला रहे बंगारू लक्ष्मण, जना कृष्णमूर्ति जैसे नेताओं की पार्टी पर पकड़ उतनी मजबूत नहीं थी। कहा जाता है की सरकार के बेहतर काम के दावे के बाबजूद भी 2004 का चुनाव पार्टी संघ का समर्थन नहीं मिलने के कारण चुनाव हार गई। पार्टी का संगठन भी पूरी शक्ति के साथ चुनाव मैदान में नहीं दिखाई दिया। 

                 फोटो - इंडियन एक्सप्रेस

आडवाणी का सपना टूटा और मोदी का सपना पूरा हुआ

 वाजपेयी सक्रिय राजनीति से बाहर हो चुके थे।पार्टी की कमान राजनाथ सिंह,नितिन गडकरी जैसे नेताओं के पास रही। लेकिन सब पर नियंत्रण आडवाणी का ही चलता रहा।पार्टी दस साल के लिए सता से बाहर रही। 2009 के चुनाव में पार्टी ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया,लेकिन सफलता नहीं मिली।आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए। उसके बाद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ने लगी। जिससे पार्टी के कई बड़े नेता असहज होने लगे। आडवाणी खेमे के नेता मोदी के दिल्ली आने से अपनी संभावनाओं पर खतरे महसूस कर रहे थे। लेकिन गुजरात से ही आने वाले संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का समर्थन नरेंद्र मोदी को प्राप्त था। पार्टी ने प्रत्यक्ष रूप से आडवाणी और सुषमा स्वराज के विरोध के बाद भी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। मोदी के नेतृत्व में पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया। 40 साल पहले बनी भाजपा आज 303 लोकसभा सदस्यों के साथ देश की सरकार चला रही है। पार्टी यह दावा करती है की 11 करोड़ से ज्यादा सदस्यों के साथ भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है।वर्तमान में मोदी के नेतृत्व में चल रही सरकार, पार्टी और संघ के बीच समन्वय बना रहे इसके लिए एक समिति बनाई गई है। यह सबक वाजपेयी सरकार के समय हुई गलतियों से ली गई है।

2 comments:

अलविदा सुशांत

यार तुम ऐसे कैसे जा सकते हो. तुम इतने लोगों के लिए प्रेरणा थे. तुम्हारा किरदार मेरे लिए बहुत बड़ा प्रेरणा है. एम एस धोनी मूवी के बाद लगने लगा...